Friday, December 21, 2018

कर्ज़ माफ़ी से किसानों का दुख कम होगा या नहीं?: नज़रिया

जब हर तरफ कर्ज़ माफ़ी की बात सुनाई पड़ रही हो, ऐसे वक़्त में सबसे ज़रूरतमंद किसानों की कर्ज़ माफ़ी के कारगर होने पर सवाल उठाना देशद्रोह माना जा सकता है.

लेकिन ये सवाल पूछना लाज़िमी है कि इससे किसानों को कितना फ़ायदा होगा.

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नव-नियुक्त मुख्यमंत्रियों की ओर से कर्ज़ माफ़ी का ऐलान करना कोई हैरान करने वाली बात नहीं है.

क्योंकि ये नए मुख्यमंत्री सिर्फ अपने घोषणापत्रों में किए वादे पूरा कर रहे हैं. उच्च स्तर पर कृषि कर्ज़ माफ़ी का ऐलान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साल 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से पहले किया था.

कर्ज़ माफ़ी का मौजूदा दौर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से शुरू हुआ, जब अगस्त 2014 में विधानसभा चुनाव से पहले कृषि कर्ज़ माफ़ी का ऐलान किया गया. इसके बाद इन कुछ दूसरे राज्यों में भी कर्ज़ माफ़ी के ऐलान हुए.

कर्ज़ माफ़ी का ऐलान और चुनाव
इन कर्ज़ माफ़ी के ऐलान में एक सामान्य बात थी कि ज़्यादातर जगहों पर चुनाव होने वाले थे.

अन्य राज्यों के किसान उतने भाग्यशाली नहीं हैं और उन्हें साल 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव का इंतज़ार करना पड़ेगा.

उम्मीद की जाती है कि कर्ज़ माफ़ी व्यवस्था से वास्तव में दुखियारे किसानों को अधिकतर फ़ायदा पहुंचेगा.

ये किसान मॉनसून के भरोसे होते हैं और उनकी फसल को सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य का फ़ायदा नहीं मिलता.

ज़्यादातर राज्यों में गेहूं, अनाज और गन्ना किसानों को उचित मूल्य का भरोसा दिया जाता है. हालांकि गन्ना किसानों को भुगतान के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ता है. जबकि अन्य फसलों की कीमत 'बाज़ार की ताक़तों' के अधीन होती हैं.

जिन किसानों के लिए ज़रूरी है कर्ज़ माफ़ी
बिहार, झारखंड, असम जैसे कई राज्यों में यहां तक कि गेहूं और अनाज उत्पादक किसानों को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त नहीं हुआ, क्योंकि ख़रीदार कमज़ोर थे.

लिहाज़ा ऐसे किसान कर्ज़ माफ़ी के लिए सबसे उपयुक्त हैं.

पिछले दो सालों में कम क़ीमत का असर दाल, तिलहन, फल और सब्जियां उगाने वाले किसानों पर सबसे ज़्यादा पड़ा है. लेकिन उन्हें शायद ही कोई फ़ायदा मिले, क्योंकि उन्होंने शायद ही फसल उगाने के लिए कर्ज़ लिया हो.

दूसरी ओर गन्ना सबसे फ़ायदेमंद फसल है और 2015-16 में महाराष्ट्र के गन्ना किसानों को (राज्य से दो-तिहाई सिंचाई की सुविधा लेने वाले) और उत्तर प्रदेश के किसानों को कुल लागत (C2 लागत) पर क्रमश: 16% और 64% का फ़ायदा हुआ.

लिहाजा वो कर्ज़ माफ़ी के दायरे में नहीं आते. चूंकि किसी राज्य में फसल के अनुसार कर्ज़ माफ़ी का आंकड़ा जारी नहीं किया गया है. कई तरह की फसल उगाने वाले किसानों को मिलने वाली माफ़ी के बारे में भी जानकारी उपलब्ध नहीं है.

Thursday, December 6, 2018

बाबा साहब भीम राव आंबेडकर क्यों नहीं कहते थे गांधी को महात्मा

गांधी और आंबेडकर के संबंध कैसे थे? इस सवाल पर लंबी बहसें होती रही हैं और काफ़ी कुछ कहा-सुना जा चुका है.

ख़ुद बाबा साहब आंबेडकर ने तो गांधी को इसलिए कठघरे में खड़ा किया था कि जब आप 'भंगी' नहीं हैं तो हमारी बात कैसे कर सकते हैं?

जवाब में गांधी ने इतना ही कहा कि इस पर तो मेरा कोई बस है नहीं लेकिन अगर 'भंगियों' के लिए काम करने का एकमात्र आधार यही है कि कोई जन्म से 'भंगी' है या नहीं तो मैं चाहूंगा कि मेरा अगला जन्म 'भंगी' के घर में हो.

साल 1955 में डॉक्टर आंबेडकर ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में महात्मा गांधी के साथ अपने संबंधों और मतभेदों पर लंबी बात की थी.

आंबेडकर: मैं 1929 में पहली बार गांधी से मिला था, एक मित्र के माध्यम से, एक कॉमन दोस्त थे, जिन्होंने गांधी को मुझसे मिलने को कहा. गांधी ने मुझे ख़त लिखा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं. इसलिए मैं उनके पास गया और उनसे मिला, ये गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाने से ठीक पहले की बात है.

फिर वह दूसरे दौर के गोलमेज़ सम्मेलन में आए, पहले दौर के सम्मेलन के लिए नहीं आए थे. उस दौरान वो वहां पांच-छह महीने रुके. उसी दौरान मैंने उनसे मुलाक़ात की और दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में भी उनसे मुलाक़ात हुई. पूना समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद भी उन्होंने मुझसे मिलने को कहा. लिहाज़ा मैं उनसे मिलने के लिए गया.

वो जेल में थे. यही वो वक़्त था जब मैंने गांधी से मुलाक़ात की. लेकिन मैं हमेशा कहता रहा हूं कि तब मैं एक प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से गांधी से मिला. मुझे लगता है कि मैं उन्हें अन्य लोगों की तुलना में बेहतर जानता हूं, क्योंकि उन्होंने मेरे सामने अपनी असलियत उजागर कर दी. मैं उस शख़्स के दिल में झांक सकता था.

आमतौर पर भक्तों के रूप में उनके पास जाने पर कुछ नहीं दिखता, सिवाय बाहरी आवरण के, जो उन्होंने महात्मा के रूप में ओढ़ रखा था. लेकिन मैंने उन्हें एक इंसान की हैसियत से देखा, उनके अंदर के नंगे आदमी को देखा, लिहाज़ा मैं कह सकता हूं कि जो लोग उनसे जुड़े थे, मैं उनके मुक़ाबले बेहतर समझता हूं.

आंबेडकर: ख़ैर, शुरू में मुझे यही कहना होगा कि मुझे आश्चर्य होता है जब बाहरी दुनिया और विशेषकर पश्चिमी दुनिया के लोग गांधी में दिलचस्पी रखते हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं. वो भारत के इतिहास में एक प्रकरण था, वो कभी एक युग-निर्माता नहीं थे.

गांधी पहले से ही इस देश के लोगों के ज़ेहन से ग़ायब हो चुके हैं. उनकी याद इसी कारण आती है कि कांग्रेस पार्टी उनके जन्मदिन या उनके जीवन से जुड़े किसी अन्य दिन सालाना छुट्टी देती है. हर साल सप्ताह में सात दिनों तक एक उत्सव मनाया जाता है. स्वाभाविक रूप से लोगों की स्मृति को पुनर्जीवित किया जाता है.

Monday, December 3, 2018

किन रीति रिवाजों से हुआ था फ़िरोज़ गाँधी का अंतिम संस्कार

7 सितंबर, 1960 जो जब इंदिरा गांधी त्रिवेंद्रम से दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर पहुंचीं, तो उनको पता चला कि फ़िरोज़ गांधी को एक और दिल का दौरा पड़ा है. वो हवाई अड्डे से सीधे वेलिंगटन अस्पताल पहुंची जहाँ फ़िरोज़ गांधी का इलाज चल रहा था.

वहाँ उनकी सहायक ऊषा भगत पहले से ही मौजूद थीं. ऊषा ने इंदिरा गांधी को बताया कि पूरी रात फ़िरोज़ कभी होश में आते थे तो कभी बेहोशी में चले जाते थे. जब उन्हें होश आता था तो वो यही पूछते थे, 'इंदु कहाँ है?'

एक सप्ताह पहले फ़िरोज़ के सीने में दर्द होना शुरू हुआ था. 7 सितंबर की शाम को उन्होंने अपने डॉक्टर और दोस्त, डॉक्टर एच एस खोसला को अपनी हालत बताने के लिए फ़ोन किया था. उन्होंने उन्हें तुरंत अस्पताल आने की सलाह दी थी.

फ़िरोज़ खुद अपनी कार चला कर अस्पताल पहुंचे थे और डॉक्टर खोसला अभी उन्हें देख ही रहे थे कि वो बेहोश हो गए थे. अंतिम समय इंदिरा फ़िरोज़ की बग़ल में मौजूद थीं.

8 सितंबर की सुबह उन्होंने कुछ देर के लिए अपनी आँख खोली थी. इंदिरा उनके बगल में बैठी हुई थीं. वो पूरी रात न तो सोईं थीं और न ही उन्होंने कुछ खाना खाया था. फ़िरोज़ ने इसरार किया कि वो थोड़ा नाश्ता तो कर लें, लेकिन इंदिरा गांधी ने मना कर दिया. फ़िरोज़ फिर बेहोश हो गए. सुबह 7 बज कर 45 मिनट पर उन्होंने आख़िरी सांस ली.

अगर वो चार दिन तक और जीवित रहे होते तो उन्होंने अपना 48 वाँ जन्मदिन मनाया होता. इंदिरा फ़िरोज़ के पार्थिव शरीर के साथ वेलिंगटन अस्पताल से तीन मूर्ति भवन पहुंचीं. इंदिरा की जीवनीकार कैथरीन फ़्रैंक अपनी किताब इंदिरा में लिखती हैं, 'इंदिरा ने ज़ोर दिया कि वो खुद फ़िरोज़ के शव को नहला कर अंतिम संस्कार के लिए तैयार करेंगीं. उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि इस दौरान वहाँ कोई मौजूद नहीं रहेगा.

नेहरू को गहरा सदमा
उन्होंने तीन मूर्ति भवन की निचली मंज़िल से सारे फ़र्नीचर हटवा दिए और कालीनों पर सफ़ेद चादरें बिछा दी गईं. इसके बाद फ़िरोज़ को श्रद्धांजलि देने के लिए लोगों की भीड़ वहाँ पहुंचनी शुरू हो गई.'

संजय और राजीव गांधी पालथी मार कर सफ़ेद चादर पर बैठे हुए थे. नयनतारा सहगल बताती हैं कि नेहरू अपने कमरे में अकेले बैठे हुए थे और बार बार यही कह रहे थे कि उन्हें इस बात की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि फ़िरोज़ इतनी जल्दी चले जाएंगे.